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हमारी याद आएगी: कवि प्रदीप, चढ़ने लगा गुड़-चना बंटने लगी चिट्ठियां

वाकया 1975 का है। देश की गली-गली में ‘शोले’ के संवादों का एलपी रिकॉर्ड बज रहा था। जनमानस ‘कितने आदमी थे...’ और ‘तुम्हारा नाम क्या है बसंती’ जैसे संवादों को कान लगाए लाउडस्पीकरों पर सुन रहा था। मगर इसी के साथ एक और घटना भी घट रही थी। गांव और शहरों के मुहल्ले की महिलाएं झुंड बनाए ‘जय संतोषी मां’ देखने के लिए निकल रही थीं। इसमें कोई नामी कलाकार नहीं था।

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