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पांच सौ करोड़ की फिल्में, पांच सौ रुपए की टिकटें

पहले दिन तीन करोड़ भी नहीं कमा पाई ‘बेल बॉटम’ अगले शुक्रवार को एक करोड़ से भी नीचे थी। अमिताभ बच्चन की ‘चेहरे’ तो बॉक्स आॅफिस पर बुरी तरह असफल हुई है। इन फिल्मों का धंधा देखकर दूसरे निर्माता भी सोच में पड़ गए हैं। महाराष्ट्र में सिनेमाघर पूरी तरह बंद हैं, जो कारोबार में तीस फीसद का योगदान देते हैं। इसलिए जब तक महाराष्ट्र में सिनेमाघर नहीं खुलते, लोकप्रिय सितारों की फिल्मों के निर्माताओं की झिझक बनी रहेगी।

‘अक्षय कुमार की ‘बेल बॉटम’ 25-30 करोड़ का कारोबार करने में ही हांपने लगी। इतने धंधे में तो अक्षय कुमार की फीस भी नहीं निकलेगी। फिल्म के छह निर्माता इसमें क्या कमाएंगे? अमिताभ बच्चन की ‘चेहरे’ चार दिन में चार करोड़ का धंधा भी नहीं कर पाई। बताइए क्या यह ताली बजाने जैसी स्थिति है? मुर्गी से ज्यादा मसाले पर खर्च हो रहा है मगर तालियां बजार्इं जा रही हैं। कहा जा रहा है कि यह अच्छी पहलकदमी है।

दूसरे बड़े निर्माता भी फिल्में रिलीज करने के लिए आगे आएंगे। कितने निर्माता आगे आए? सभी के सामने है। सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर एक के बाद एक बंद होते जा रहे हैं। सरकारें उनकी समस्याओं को समझ ही नहीं रही हैं। पूरे देश में सिनेमाघरों को प्रापर्टी टैक्स एरिया के हिसाब से देना पड़ता है, महाराष्ट्र में यह कुरसियों की संख्या के हिसाब से लिया जाता है। हम कुरसियां कम करना चाहें तो नियम-कानून इतने जटिल हैं कि पसीना छूटने लगे। सौ-सौ करोड़ फीस लेने वाले एक्टरों की फिल्में पच्चीस-तीस करोड़ का धंधा कर रही हैं।

सिनेमाघर का रखरखाव मुश्किल हो गया है, धंधा क्या खाक चलेगा। हम अपने आखिरी दिन गिन रहे हैं। हमारा मर्ज लाइलाज हो चुका है।’ यह मुंबई के सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर के एक मालिक की पीड़ा थी, जो इस सवाल के बाद सामने आई थी कि धंधा-पानी कैसा चल रहा है। उधर दक्षिण भारत में अभी भी फिल्में 200-250 करोड़ का कारोबार कर रही हैं, मगर उसके पीछे सितारों के फैन क्लबों की फौज खड़ी है। ये फैन क्लब अपने प्रिय सितारों की फिल्में हाउसफुल करवाते रहे हैं, बदले में सितारे अपने ‘फैन क्लबों’ का ‘ध्यान’ रखते हैं। वहां पांच सौ करोड़ की फिल्में बन रही हैं।

कोई सोच भी नहीं सकता था कि किसी प्रादेशिक फिल्म की लागत 500 करोड़ हो सकती है। यह एक्जीबीटर, सिनेमा मालिक, सालों से सिनेमा के धंधे में है। फिल्मों पर पहले दिन टूटने वाली भीड़ के वह गवाह रहे हैं। वह बताते हैं,‘1960 दशक में ‘मुगले आजम’ रिलीज हुई तो ड्रेस सर्कल की टिकट दो रुपए थी। 70 के दशक में ‘पाकीजा’ रिलीज हुई तो इसकी कीमत तीन रुपए हो गई। 1981 में ‘क्रांति’ की अपर स्टाल की टिकटें छह रुपए पर पहुंच गई थी। सिनेमा तब भी मनोरंजन का सस्ता माध्यम था। तब हिसाबी-किताबी लोगों ने 90 के दशक में सिर्फ इन्हीं लोगों के लिए पुराने सिनेमाघरों को तोड़कर दो-ढाई सौ लोगों की क्षमता के सिनेमाघर मल्टीप्लेक्स में बना दिए और उनकी पूंछ के पीछे-खाने खरीदने की चीजें बांध दीं। इसके बाद टिकटों के दाम सुबह नौ बजे के शो में 90 रुपए हो गए और रात नौ बजे के शो में पांच सौ। आज स्थिति यह है कि पांच सौ करोड़ की फिल्में बन रही हैं जिनका टिकट पांच सौ रुपए है। कितने लोग खरीद पाएंगे इतने महंगे टिकट। तो ऐसे चल रहा है सिनेमा का धंधा, जो अब गोरखधंधा बन चुका है।’

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