Breaking News

इतिहास की छूटती डोर

हाल के कुछ वर्षों में ‘इतिहास’ राजनीतिक विवाद का विषय बना हुआ है। यह नया रणक्षेत्र है। दबी हुई चीजों को उभारने और नई अस्मिताओं को बनाने के लिए फिल्मों को आधार बनाया जा रहा। लगान, जोधा अकबर, बाजीराव मस्तानी या पद्मावत की बाक्स आफिस पर शानदार सफलता और पैसा बटोरू फिल्मों ने भी फिल्म निर्माताओं का ध्यान इतिहास आधारित फिल्मों की तरफ खींचा।

लेकिन इतिहास को साधना इतना आसान नहीं। यह बेहद तैयारी और शोध की मांग करता है। फिर उसे सिनेमेटोग्राफी में ढालना और दर्शकों की अभिरुचियों पर खरा उतारना भी एक चुनौती है। यही कारण है कि इतिहास केंद्रित बहुत सारी फिल्में बेहद कमजोर और लचर दिखी। दर्शकों के बीच उसे पसंद नहीं किया गया, जबकि फिल्म में स्टारडम और आइकन की कमी नहीं थी।

ठग्स आफ हिंदुस्तान, मंगल पांडे, अशोका, कलंक, बेगमजान, रंगून, फिरंगी, द गाजी अटैक, पानीपत, मोहनजोदारो, सम्राट पृथ्वीराज आदि फिल्में दर्शकों के बीच प्रशंसा नहीं बटोर पाई। कुछ फिल्में तो राजनीतिक चुनाव को ध्यान में रख कर बनाई गर्इं, तो कुछ फिल्मों का प्रचार मंत्रियों, नेताओं से कराया जाने लगा है। दरअसल, अब फिल्म निर्माता ‘फिल्म की साधना’ न करके फिल्म के माध्यम से ‘राजनीतिक साधना’ कर रहे हैं। कहना न होगा, फिल्में राजनीतिक प्रोपगेंडा ज्यादा हो गई हैं, कला कम।

फिल्में पालिटिकल प्रोपगेंडा का हिस्सा हमेशा से रही हैं, लेकिन अंतत: फिल्म कलात्मक विधा है। वैचारिक दरिद्रता, कमजोर अंत:दृष्टि, उथले और षड्यंत्रकारी संवाद, जिसमें वर्ग, वर्ण, धर्म या समुदाय विशेष के प्रति घृणा का भाव छिपा हो तो ऐसी स्थिति में फिल्में कमजोर साबित होती हैं। ‘द कश्मीर फाइल्स’ को ही लें। काफी हद तक फिल्म साक्ष्यों और तथ्यों पर आधारित है, लेकिन कई ऐसे तथ्य दबा दिए गए या छिपा लिए गए जो समाज को मजबूती प्रदान करते और दर्शकों के बीच बड़े विचार या संदेश को सामने रखते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अगर एक समुदाय विशेष की कुछ अच्छाइयों को ही गायब कर दिया जाए तो वह ‘पोलिटिकल प्रोपेगेंडा’ में तब्दील हो जाती है।



from Entertainment News (एंटरटेनमेंट न्यूज़) In Hindi, बॉलीवुड समाचार, Manoranjan News, मनोरंजन समाचार | Jansatta https://ift.tt/DH9Kg3C

No comments