नाकामी और कामयाबी के बीज
हाल के वर्षों में कई फिल्में ऐसी आईं जो ऐतिहासिक चरित्रों और इतिहास की घटनाओं आदि को केंद्र में रख कर बनाई गईं, लेकिन ये फिल्में न तो दर्शकों के बीच बहुत सराही गईं, न ही दर्शकों पर गहरी छाप छोड़ पाईं। उसकी बड़ी वजह यह रही कि इन फिल्मकारों ने न तो इतिहास और ऐतिहासिक चरित्रों के साथ पूर्ण न्याय किया, न ही फिल्म के साथ। संजय लीला भंसाली महाआख्यानात्मक फिल्में बनाते हैं। सधा हुआ निर्देशन, लेखन, शानदार सिनेमेटोग्राफी, खूबसूरत ड्रेस डिजाइनिंग, भव्य सेट और रंगों के अद्भुत संयोजन से राजनीतिक एजेंडे की कमियों को ढक लेते हैं। उनकी फिल्में व्यावसायिक और मनोरंजन के लिहाज से भी सफल होती हैं।
कंगना रनौत की इतिहास की समझ सतही है। जाहिर है उसके निर्देशन और नायिकत्व में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई पर बनी फिल्म भी औसत से कम दर्जे की है। कंगना अपनी फिल्मों के माध्यम से हिंदूवादी राजनीतिक एजेंडा सेट करती हैं। नतीजन, फिल्म बेहद कमजोर बनी। फिल्म में हम लक्ष्मीबाई के बजाय कंगना रनौत को देख रहे थे। वह लक्ष्मीबाई के चरित्र में समा नहीं पाई। ‘अशोका’ में शाहरुख खान अपनी अन्य फिल्मों की शैली के साथ मौजूद रहे।
हम फिल्म में सम्राट अशोक को नहीं, शाहरुख खान को देखते रहे। तकरीबन यही स्थिति ‘सम्राट पृथ्वीराज’ की रही। दर्शकों के बीच पृथ्वीराज चौहान नहीं, अक्षय कुमार की मौजूदगी रही। ऐतिहासिक पात्रों के साथ विलगाव और दूरी के कारण ऐसा होता है। सम्राट पृथ्वीराज को अंतिम हिंदू सम्राट की तरह पेश किया गया। इसे साहित्य, इतिहास और फिल्मी कलात्मकता की दृष्टि से कमजोर और भ्रामक फिल्म कहा जा सकता है।
‘सम्राट पृथ्वीराज चौहान’ पर हर्षुल भट्ट ने 1959 में भी फिल्म बनाई थी। उस फिल्म में पृथ्वीराज चौहान हिंदुस्तान के एक राष्ट्रीय चरित्र और योद्धा की तरह सामने आता है। इस फिल्म में भी राष्ट्रवाद उभरा हुआ है, लेकिन यह राष्ट्रवाद क्षेत्रीयता में बंटे हिंदुस्तान को एकीकृत करता नजर आता है। इस फिल्म पर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की छाया है।
फिल्म देश की आजादी की लड़ाई में बदलता दिखता है। यह लड़ाई हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान और मुसलमान बादशाह मोहम्म्द गौरी के बीच नहीं है। यह फिल्म देश पर कब्जा जमाने की ताक में बैठे विदेशियों और असंगठित, लेकिन देश पर कुर्बान होने वाले योद्धा के बीच है। यह निर्देशक की खूबी है कि उन्होंने पृथ्वीराज को एक ‘राष्ट्रवादी योद्धा’ की तरह प्रस्तुत किया है न कि ‘हिंदूवादी योद्धा’ की तरह। जब जयचंद गौरी को आक्रमण के लिए आमंत्रित करता है, तो उसकी पत्नी फटकारते हुए कहती है- देश को गुलाम और बेटी को विधवा बनाने की सोचने के पहले आपकी छाती फट क्यों नहीं जाती। जयचंद जवाब में कहता है- हमारे दुश्मन हमारे घर में बैठे हैं तो प्रतिउत्तर में पत्नी कहती है- यह समझ में नहीं आया कि हिंदुस्तान के दुश्मन हिंदुस्तान में ही बैठे हैं।
यह फिल्म संवाद, अभिनय और प्रस्तुति में कहीं उम्दा है, क्योंकि निर्देशक की दृष्टि ऐतिहासिक चरित्रों को हजार वर्ष के विशाल कालखंड में फैला देता है, जबकि चंद्रप्रकाश द्विवेदी उसे संकुचित करते हैं और हिंदू-मुसलिम की राजनीतिक खांचे में फिट करने की कोशिश करते हैं। पिछले दो-तीन दशकों में इसे बेहद सचेत भाव से किया गया है। एक किस्म से इसे क्रियाशील किया गया है।
सोहराब मोदी की फिल्म ‘झांसी की रानी’ (1953) में लक्ष्मीबाई अंग्रेजों पर इसलिए बम नहीं बरसाती है, क्योंकि अंग्रेज मंदिर के पीछे छिपे थे। इस चीज का सिक्वेल बना कर ‘मणिकर्णिका’ फिर से पेश करती है। मराठा अस्मिता को आधार बना कर बनी फिल्में ‘बाजीराव मस्तानी’, ‘केसरी’, ‘पानीपत’ आदि में भी यह चीज उभरी हुई है।
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